गजल- उम्मीदे आवाम
गजल- उम्मीदे आवाम
हो रही धर्म की राजनीति धर्म मगर कहीं दिखता नहीं।
वोट लिए मंदिर के नाम मंदिर मगर कहीं बनता नहीं।
तुम रहो न रहो मैं रहूँ न रहूँ ये दुनिया चलती रहेगी
पहन तो लिया जनेऊ मंदिर प्रभु ध्यान मगर लगता नहीं।
लड़ रहे सभी कुर्सी के लिए, हाथ, पैर, मुँह सब चल रहे
आतंक, गरीबी, बेरोजगारी बात कोई मगर करता नहीं।
भ्रष्टाचार मिटाना, कालधन लाना नारा खूब बुलंद हुआ
देश यूँ ही घसीटता रहा देने जवाब कोई मगर मिलता नहीं।
जात-पात, ऊँच-नीच, मजहब में बाँट दिया देश सियासत में
भूखी आवाम तलाशे जिंदगी पेट मगर कोई भरता नहीं।
बरगलाओगे कब तक टूट जाएगा सब्र का बांध एक दिन
उठकर दौड़े उम्मीदें आवाम साथ मगर कोई चलता नहीं।
हैरान भारती सुन लच्छेदार भाषण अपने सियासतदारों के
मिटा लेती भूख आवाम, भाषण, वादे मगर गले उतरते नहीं।
वो देखो लहरा रहा दुश्मन का झण्डा लोगों की रैलियों में
देश है, तुम हो, हम है, समझकर भी मगर वो समझता नहीं।।
