ग़ज़ल
ग़ज़ल
खिड़की खुली है कि मंज़र में आओ..
बादल कभी तुम मिरे घर में आओ..
बैठे रहोगे फ़लक में यूँ कब तक,
मौला हमारे बराबर में आओ..
माना दुआ ये मुनासिब ना होगी,
फिर भी कभी तुम मुक़द्दर में आओ..
मूरत लिये फ़िर रही है वो कब से,
मीरा बुलाती है पत्थर में आओ..
वो आ गया है महल तक तुम्हारे,
तुम भी सुदामा के खंडहर में आओ..
बाहर रहे हो हमेशा ही लेकिन,
पैरों ! कभी मेरी चादर में आओ..
कुछ ना मिलेगा किनारों पे तुमको,
कश्ती निकालो समंदर में आओ।।