ग़ज़ल
ग़ज़ल
ख़ुद को कितना समझाया है मैंने,
वक़्त को बख़ूबी आज़माया है मैंने।
बदल ली हैं इसने सीरतें अपनी,
जब भी इसे सैलाब दिखाया है मैंने।
दावत-ए-नसीहत पैग़ाम लायी है,
क़ल्ब उसका ज़रूर दुखाया है मैंने।
बेवफ़ाई के चर्चे बहुत सुने हैं उसके,
वफ़ा भी क्या ख़ूब सिखाया है मैंने!
दहलीज़ खुली छोड़ रखी थी आज,
वक़्त फ़िर इंतज़ार में बिताया है मैंने।
हक़ीक़त से वास्ता नहीं इसका,
ख़्वाब ये तराशकर सजाया है मैंने।
मज़मून ये के अर्सों की शमा को,
अँधेरे से रूबरू कराया है मैंने।
अरे ये चाय फ़ीकी क्यूँ है तुम्हारी!
मीठा तो बराबर मिलाया है मैंने।
और मजाल के तुम उठा लो आयुषी,
फ़िर भी आज कॉल लगाया है मैंने।