ग़ज़ल 2
ग़ज़ल 2
चलने को फ़िज़ा में नूर की कमी है,
शायद आज उन आँखों में नमी है।
दिल-ए-नाराज़ तुझे मनाऊँ कैसे,
तुझे तोड़ने वाला ही बेरहमी है।
अपने लहू से वो होंठ लाल करे है
छोड़ो इसे, ये बात ही फ़िल्मी है।
सैलाब-ए-जज़्बात में वो कहेंगें,
आज बातों को मौज़ू की कमी है।
ग़मों को एक पैमाने में पिया हमने,
हाय! ये ख़्वाब टूटना लाज़मी है।
जिसे तुम फ़कीर समझ बैठे हो,
वो तो बनने वाला आज़मी है।
जिसने मुझे ज़माने से जुदा किया,
सितम ढाता ये वही आदमी है।
दिलों का ज़हर अब फ़ज़ा में है,
फ़िर दुनिया क्यों इतना सहमी है।
