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Ayushi Modak

Abstract

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Ayushi Modak

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टूटे हुए कांच से गुलदान बना नहीं

टूटे हुए कांच से गुलदान बना नहीं

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टूटे हुए काँच से गुलदान बना नहीं,

ख़ारिज-ए-सक़फ़ मकान बना नहीं।


हल-ए-मसअला उनका ईजाद हुआ,

जिन्हें पूछने वाला इंसान बना नहीं।


अंजुमन में रंग उन्होंने घोला जिनकी,

लियाक़त का कदरदान बना नहीं।


वो जहूर-पज़ीरी अभी कर सकते हैं,

उनके लिए कोई चालान बना नहीं।


इक रोज़ मैं यूँ सोया कि सहर न हुई,

बर्फ़ से अच्छा पासबान भी बना नहीं।


उम्र बीत गयी जिस शहर में हमारी,

वहाँ हमारा पहचान तक बना नहीं।


हाँ, आज भी आ सकते हो वापस,

तुम्हारा तो कोई गिरेबान बना नहीं।


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