टूटे हुए कांच से गुलदान बना नहीं
टूटे हुए कांच से गुलदान बना नहीं
टूटे हुए काँच से गुलदान बना नहीं,
ख़ारिज-ए-सक़फ़ मकान बना नहीं।
हल-ए-मसअला उनका ईजाद हुआ,
जिन्हें पूछने वाला इंसान बना नहीं।
अंजुमन में रंग उन्होंने घोला जिनकी,
लियाक़त का कदरदान बना नहीं।
वो जहूर-पज़ीरी अभी कर सकते हैं,
उनके लिए कोई चालान बना नहीं।
इक रोज़ मैं यूँ सोया कि सहर न हुई,
बर्फ़ से अच्छा पासबान भी बना नहीं।
उम्र बीत गयी जिस शहर में हमारी,
वहाँ हमारा पहचान तक बना नहीं।
हाँ, आज भी आ सकते हो वापस,
तुम्हारा तो कोई गिरेबान बना नहीं।