ख़ुशी का पता
ख़ुशी का पता
ऐ ख़ुशी, तू रहती कहाँ है?
माँ के चहरे पर, पिताजी की जेब में,
कुछ ग़ुम पन्नों पर, फ़ूल की ख़ुशबू में,
या पलाश की बेल पर?
किस बात की जल्दी रहती है तुझे?
सबके हक़ में है तू...
फ़िर किसी के साथ लंबा रुकना,
और किसी को लंबा रोकना,
ये सही तो नहीं...
तू चेहरों पर ठहरती क्यों नहीं है?
मुश्किल क्यों होता है तुझे ढूंढ़ना?
कभी चाय पर साथ बैठना,
ज़िंदगी की चार बातें करेंगे।
ख़ुशी बोली...
तुम मुझे ढूँढ़ते वक़्त ज़ाया करती हो।
मैं तो हर कहीं हूँ, तुममें ही हूँ।
दोस्तों के साथ बिताई हर हसीं शाम में,
रात के रखे उस आख़री जाम में।
माँ के कंगन की खनक में,
सुनसान पड़ी उस सड़क में।
पर जब उस बुज़ुर्ग को पानी नहीं पिलाया,
एक गरीब बच्चे को सामने भूखा सोने दिया।
माता-पिता को खरी-खोटी सुनाया,
तुमने खुद ही मुझे दूर कर दिया।
फ़िर भी तुम्हारे पास ही हूँ मैं,
ढूँढ़ने की ज़रूरत नहीं,
कहीं खोई नहीं हूँ, यहीं हूँ मैं।