ग़ज़ल - जेठ की दोपहर
ग़ज़ल - जेठ की दोपहर
आग बरसा रही जेठ की दोपहर।
सब की दुश्मन बनी जेठ की दोपहर।
तप रही है जमीं तप रहा आसमां,
हर तरफ लू चली जेठ की दोपहर।
शर्बतों के घड़े भर के मैं पी गया,
प्यास इतनी लगी जेठ की दोपहर।
है परेशान मजदूर क्या वो करे,
गर्म इतनी हुयी जेठ की दोपहर।
हाल बेहाल इतना सभी का यहाँ,
ख़त्म होगी कभी जेठ की दोपहर।
छुट्टियों का मज़ा किरकिरा कर दिया,
ये है ज़ालिम बड़ी जेठ की दोपहर।
छाँव मिलती नहीं अब कहीं पेड़ की,
इसलिये यूँ तपी जेठ की दोपहर।
झील तालाब भी सूख कर गुम हुये,
जानवर भी दुखी जेठ की दोपहर।
साथ मिल कर बचायें चलो ये जहां,
मिल कसम लें सभी जेठ की दोपहर।