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ग़ज़ल-ए-इश्क़

ग़ज़ल-ए-इश्क़

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यूँ मेरी मज़ार पे आना तेरा,

फिर दुआ में हाथ उठाना तेरा,

आज भी ज़माना याद करता है,

तेरे इश्क़ में मर जाना मेरा।


हम मिले थे ऐसे,

ख़ुदा की ख़्वाहिश थी,

याद है ग़र तुझे,

उस दिन बेवक़्त की बारिश थी।


वो बारिश, वो आसमां,

वो बादल, वो पर्वत,

इन्हीं सबने तो की

इश्क़ की फ़रमाइश थी।


ये मोहब्बत के नये दौर

का आगाज़ था,

हमने सोचा की मौसम

का बदला मिजाज़ था।


सवाल ये था कि

कहानी शुरु कहाँ से हो,

क्यूँकि तब तो वो

मुझसे नाराज़ था।


अगले ही कुछ पलों में

सब बदल गया,

दोनों की गुफ़्तगू का

सिलसिला चल गया।


उसने मज़ाक में ही सही

पर पकड़ा जो मेरा हाथ,

सीने में जो धड़क रहा था

वो दिल मचल गया।


वो एक मुलाक़ात ही

ज़िन्दगी जीने की वज़ह बन गयी,

जो थम गयी थी

साँसे वो फिर से चल गयी।


मेरे ख़ुदा की

रहमत थी ये मुझ पे,

एक लब्ज से शुरू की थी

जो वो ग़ज़ल बन गयी।


फिर वक़्त रुसवा हुआ

और वो मुझसे दूर हो गयी,

करके निक़ाह किसी और से

वो उसका नूर हो गयी।


इम्तिहां हुआ था

मेरी मोहब्बत का,

और मेरी सारी उम्मीदें

चकनाचूर हो गयी।


मुहब्बत आज भी है दिल में,

और हमेशा रहेगी,

ज़िन्दगी और मौत क्या

मुझे उससे दूर करेगी।


उसका इश्क़ है आज भी दिल में,

हर साँस लुटा दूँ, ऐसा है मुस्कराना तेरा,

आज भी ज़माना याद करता है,

तेरे इश्क़ में मर जाना मेरा।।


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