मंज़िल
मंज़िल
अगर लड़ रहे हो अपने हक़ के लिए,
जनाब वो कोई गुनाह तो नहीं है
माना ये ज़िन्दगी एक जंग है
पर इसे मर मर के जीने की सज़ा तो नहीं है
तू भी उठ, पहचान बना अपनी इस जहां में
सब कुछ हो सकता है मगर कायर तो नहीं है
जिस पल तू खड़ा होगा, सोचेगा खुद के लिए
वही तेरी जीत है, अब आसमान दूर तो नहीं है
पंख खोल अपने, उड़ जा आसमान में बेधड़क
ये मंज़िल है, बिना रूकावट मुकम्मल तो नहीं है
जब मंज़िल मिलेगी तो याद आएगा हर मोड़ तुझे
हिम्मत रख, इससे ज्यादा कोई सुकून तो नहीं है