ग़ज़ल : ३
ग़ज़ल : ३
रौशनी की जद के आगे तक निकल चलता हूँ मैं,
इत्र अहसासों की जब-जब जेह्न में मलता हूँ मैं।
रंजिसें नफरत व साजिस क्या बिगाड़ेंगे मेरा,
हूँ परिंदा रोज तूफानों में ही पलता हूँ मैं।
खूब रोती है सिसक कर सुब्ह कुदरत शबनमी
रात सा गुमनामियों में जब कभी ढलता हूँ मैं।
देखकर मेरी तपिस हैरान हैं तारीकियाँ
आज कल तो जुगनुओं को भी बहुत खलता हूँ मैं।
क्या जिए दो चार पल को बस जिए खुद के लिए
आदमी हूँ आदमी की शक्ल में ढलता हूँ मैं ।
वक़्त के लाखों समन्दर साथ चलते हैं मेरे
जब भी यादों का दुशाला ओढ़ कर चलता हूँ मैं।