Ghazal No. 35 बेपर्दा हुआ झूठ तब भी सच ही लगा हमें झूठ को तो हमने पैहम स
Ghazal No. 35 बेपर्दा हुआ झूठ तब भी सच ही लगा हमें झूठ को तो हमने पैहम स
चाँद को घुलते हुए एक तालाब में देखा
उसके सरदाब को तब्दील होते शहदाब में देखा
मिटा दिए जो नक़्श-ए-पा लहरों ने साहिल पर से
उभरता उन्हें फिर हमने एक सहाब में देखा
बेपर्दा हुआ झूठ तब भी सच ही लगा हमें
झूठ को तो हमने पैहम सच के नक़ाब में देखा
एक पतंगे को जुगनू पर फ़ना होते देखा
रात भर शम्अ' को फिर अज़ाब में देखा
गुनाह है तकब्बुर हर एक दीन में और हमने यहाँ
हर एक को अपने अपने महज़ब के ग़ुराब में देखा
परवाज़ की जिस परिंदे ने अपने हौसलों के परों से
आसमां को भी आते हुए उसके पायाब में देखा
जोश-ओ-जुनूँ में जो पी लिया था कभी जाम-ए-इश्क़
फिर ताउम्र आते लहू को अपने लुआब में देखा
वो आसमां को छूती इमारत था गुरूर जिसे अपनी बुलंदी
वक़्त के जलजले से उसे भी मिलते हुए तुराब में देखा
हो गए सब नाक़िदाँ-ओ-उलमा-ओ-शैख़ हाकिम-ए-वक़त के साथ
हर एक आईने को हमनें यहाँ बदलते हुए सराब में देखा
कहाँ मयस्सर लुत्फ़ सफर में भटकने का यहाँ किसी को
हमने तो हर एक को यहाँ चलते मंज़िल-ए-निसाब में देखा
क्या हुआ ज़ियाँ ये होश नहीं दीदार-ए-यार के बाद
बस ये याद कि बिजलियों को कौंधते अपनी आ'साब में देखा
होगी कहाँ इतनी तलब-ए-क़त्ल तेरी शमशीर में ए रकीब
जो शौक़-ए-क़त्ल हमने नश्तर-ए-तंज़-ए-अहबाब में देखा
की कोशिश जिसने भी जानने की ज़िन्दगी-ए-रम्ज़ को
'प्रकाश' धँसते हुए उसको बस इस ख़ुल्लाब में देखा।
