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संजय असवाल

Abstract

4.7  

संजय असवाल

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मन की उलझने

मन की उलझने

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मन में अजीब एक

कशमकश है

थोड़ी लाचारी 

थोड़ा ये बेबस है,

घिरा हूं खुद ही 

अपने अंदर के शोर से,

घुट रहा हूं मैं

होले होले

इस खालीपन से,

खुद में व्यथित हूं

और निराश भी,

मैं खुश हूं

और उदास भी,

क्या सही क्या गलत 

सब मुझमें ही दिखता है,

दुराह तो बस मन का है,

दिल बस यूं ही कराहता है

तड़पता है 

अब रात दिन

पुरानी यादों में,

ढूंढता है 

अनगिनत बिखरे

अनुत्तरित असंख्य प्रश्नों के जवाब,

पर हर ओर

सिर्फ एक अनंत शून्य है,

गहरी खामोशी है

जो अंदर तक 

कचोटती है 

भावनाओं के समुंदर को,

उलझनों के कुंहांसे

डसने को बेताब है

उम्मीदों के दामन को,

और मैं .......!

दर्द में टूटकर

थका थका सा हूं,

मन का तूफान 

जिंदगी की नाव को 

दूर ले जा रही है

बिखरती हुई जिंदगी

मझधार में 

हिचकोले खा रही है,

कैसे समेटूं

इस बिखराव को....!

कहां ढूंढूं वो सुकून

जो खो गया है

जो था मुझमें

पर अब नही है.....!

बस उम्मीदों की परछाई के पीछे

भागते भागते

अब खड़ा हूं अकेला 

बेहद तन्हा

एक सुकून के इंतजार में.........!!



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