Ghazal No. 11 एक बार तुम्हें ज़िंदगी क्या कहा कि फि
Ghazal No. 11 एक बार तुम्हें ज़िंदगी क्या कहा कि फि
हाथ उनका भी था इस दुनिया को सँवारने में
ज़िक्र जिनका नहीं था ज़माने के किसी फ़साने में
एक बार तुम्हें ज़िंदगी क्या कहा कि फिर
ज़िंदगी गुजर गयी ज़िंदगी को मनाने में
यूँ तो उनसे मुलाकात थी बस चंद लम्हों की
बरसों गुज़रे हमको उसकी तफ़्सील सुनाने में
वो तो दुनिया लड़ी मुझसे तुझको सामने रख कर
वर्ना क़ुव्वत कहाँ थी हमसे टकराने की इस ज़माने में
वो दूर से पास आके मेरे करीब से गुज़र गया
ऐसे भी सितम ढाये हैं उसने मेरे ज़ब्त को आजमाने में
फक़त उन्हीं के घर रौशन रहे सारे जमाने में
हाथ जिनके नहीं काँपे औरों के घर जलाने में
जो कहते थे छोड़ देंगे सारे ऐश-ओ-आराम मेरे लिए
चंद लम्हों में ही घुटने लगा उनका दम मेरे गरीब-खाने में
एक बार उतरा था वो शहर के दरिया के पानी में
तबसे बिकती नहीं मय यहाँ किसी भी शराब-खाने में
कौन करेगा तरदीद उनके अक़ीदत की
जो बिन पीये भी रहे मख़मूर मय-खाने में
उसी की यादों के सहारे कटी ज़िंदगी अपनी
वक़्त जिसे ना लगा हमें भूल जाने में
बदलते रहना तो आईन है क़ायनात की
कोई कसर ना छोड़ी तूने मेरे साथ ये दस्तूर निभाने में
बहक गए जो कदम सुरूर-ए-क़ामयाबी में तो कोई बात नहीं
मगर तौहीन-ए-मय होती है मयकशी के बाद लड़खड़ाने में
फ़क़त एक आईना ही था जो बिखर गया
वर्ना किसको दिखा ज़ब्त-ए-दर्द मेरे मुस्कराने में
हो ना जाऊँ उठ के खड़ा कहीं मैं फिर अपनी खाक़ से
रहा जमाना मुद्दतों मसरूफ़ मेरी राख़ को बिखराने में।