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राहुल द्विवेदी 'स्मित'

Tragedy

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राहुल द्विवेदी 'स्मित'

Tragedy

घाटी-घाटी चीख रही है

घाटी-घाटी चीख रही है

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घाटी-घाटी चीख रही है, वादी में सन्नाटा है ।

छल से कई गीदड़ों ने मिल, कल शेरों को काटा है ।


आज पुनः कौरव खिलजी, गौरी के वंसज दिखते हैं ।

छली और कपटी फिर हमको, सीना ताने मिलते हैं ।


रक्त बहा है झेलम वाली, पतित पावनी घाटी में ।

छल के कुछ कण आन मिले हैं, भारत माँ की माटी में ।


चन्दन सी माटी के आगे, भला धूल क्या ठहरेगी ।

आँखों को भी पीड़ा देगी, मन को भी वह अखरेगी ।


यह भारत की मिट्टी है जो, बस इतिहास बनाएगी ।

पुनः पुनः इतिहास नहीं अब, आगे यह दोहराएगी ।


आसमान में केवल चीखें, और दर्द ही पसरा है ।

घायल मानवता का देखो, घाव बहुत ही गहरा है ।


भारत माँ की आँखों में भी, आज उमड़ता पानी है ।

ममता के सीने में उठता, दर्द-दर्द तूफानी है ।


अपने बेटों की अर्थी पर, रोना जिसकी शान नहीं ।

उसको भी इस विव्हलता में, खुद का कुछ भी ध्यान नही ।


आज बहन भी राखी वाला, हाथ चूमकर रोई है ।

अपने भाई के पौरुष पर, गर्वित होकर खोई है ।


और पिता सीने में कितना, दर्द छुपाये बैठा है ।

मन ही मन हत्यारों की वह, लास बिछाए बैठा है ।


सबकी केवल माँग एक है, दुश्मन का संहार करो ।

भारत भू पर छाये मातम, का सच्चा उपचार करो ।


दो कौड़ी का देश हमें फिर, आँख दिखाये, लानत है ।

आतंकी हमसे दोबारा, आँख मिलाये, लानत है ।


लानत है उन सभी सियासी, मन के पहरेदारों को ।

घर में घुसे हुए भारत की, सुचिता के हत्यारों को ।


आतंकी हमलों में भी जो, आज सियासत करते हैं ।

दो कौड़ी के हत्यारों के, लिए बगावत करते हैं ।


आतंकी को भाई कहने, वाले नीच दरिंदे हैं ।

अपने ही घर में कुछ बैठे, दुश्मन के बाशिंदे हैं ।


लानत देता हूँ उन देशों, को उनकी कायरता पर ।

जो अब तक खामोश खड़े हैं, आतंकी बर्बरता पर ।


आतंकी आकाओं को जो, अपने घर में पाल रहे ।

जलती मानवता पर प्रतिदिन, काला घी हैं डाल रहे ।


सोंच-समझ कर जिनकी भाषण, देने की औकात नहीं ।

हंसों के गुट में रहने की, जिनकी ऊँची जात नहीं ।


आज वहीं इस विश्व गुरू को, टेढ़ी आँख दिखाते हैं ।

राजनीति के चाणक्यों को, राजनीति समझाते हैं ।


काश्मीर की बलिवेदी पर, अब बलिदान नहीं होंगे ।

बहुत हो गया अब वीरों के, यों अपमान नहीं होंगे ।


हम प्रताप के वंशज रोटी, भले घास की खायेंगे ।

लेकिन अपमानित होने से, पहले खुद मर जायेंगे ।


कत्ल हुआ विश्वास, देश की, मिट्टी भी शर्मिंदा है ।

मानव में पशुता का दानव, कैसे अब तक जिन्दा है ।


शांतिवार्ता के प्रयास में, मिलनी बस नाकामी है ।

नासमझों को समझाना भी, केवल अपनी खामी है ।


विद्वानों की सभा कहाँ, गंगू तेली को भायेगी ।

भैंस के' आगे बीन बजाओ, भैंस खड़ी पगुरायेगी ।


एक गधे को घोड़ा समझो, ढेंचू-ढेंचू गायेगा ।

मुँह खोलेगा और तुरत, अपनी औकात दिखायेगा ।


भारत माँ की छाती घायल, चीख रही अब न्याय करो ।

नई क्रांति का शुरू पुनः तुम, वहीं नया अध्याय करो ।


शिशुपालों के झुण्ड ने' फिर से, कृष्ण तुम्हे ललकारा है ।

सूरज से लड़ने को व्याकुल, दीख पड़ा अँधियारा है ।


सौ गलती की नहीं प्रतीक्षा, कृष्ण तुरत संहार करो ।

अँधियारे को मिटा दिवाकर, दिन पर तुम अधिकार करो ।


कूटनीति के वार प्रभावी, एक तरफ से छोड़ो भी ।

और दूसरी ओर शत्रु के, बाजू तोड़ो-फोड़ो भी ।


जो खुद में न्यूक्लियर शक्ति का, दम्भ चढ़ाए फिरते हैं ।

उनसे कह दो हम हाथों में, चक्र सुदर्शन रखते हैं ।


नहीं तोतले, हम शेरो की, तरह दहाड़ा करते हैं ।

हिरणाकुश जैसे पापी को, चीरा-फाड़ा करते हैं ।


संस्कार की फसलों से ही, नींव बनाई जाती है ।

इस भारत की मिट्टी में, केसर उपजाई जाती है ।


दुश्मन को भी गाली देना, अपना नीति विचार नहीं ।

गाली दे जिसके हाथों में, पौरुष का हथियार नहीं ।


जिनको मानवता की भाषा, से थोड़ा भी प्यार नहीं ।

अपनी जिव्हा पर ऐसों का, नाम हमें स्वीकार नहीं ।


लेकिन रण करते हैं जब भी, शत्रु नाश हो जाता है ।

एक-एक हमला दुश्मन को, मृत्यु पाश हो जाता है ।


अब मौका है पुनः युद्ध का, विगुल बजा उठ जाएँ हम ।

एक-एक को चुनकर मारें, बिजय ध्वजा फहराएं हम ।


सौ दो सौ को मारेंगे तब, फिर से सौ उठ जाएंगे ।

खा पी कर फिर ताकतवर बन, वे हमसे टकराएंगे ।


अगर मिटाना हो तो पूरा, पेड़ खोदना होता है ।

फसल मिटाकर फिर से पूरा, खेत जोतना होता है ।


उसी तरह दुश्मन का जड़ से, पूरा काम तमाम करो ।

दुनिया के नक्शे से गायब, उसका पूरा नाम करो ।


कलयुग के अत्याचारी हैं, इनको पार लगा दो तुम ।

कंस और रावण सा इनको, भी इतिहास बना दो तुम ।


भारत में जो तुमको रोंके, समझो वो भी दोषी है ।

इस मिट्टी में रहकर भी वो, दुश्मन है परपोषी है ।


ये मत सोंचो कलयुग में अब, कोई कल्कि जगायेगा ।

आने वाला समय तुम्ही पर, ऊँगली सदा उठायेगा ।


हर बोले के नारों से अब, पुनः गगन गुँजार करो ।

दुश्मन पर धावा बोलो तुम, ब्रह्म शक्ति का वार करो ।


इस मिट्टी का कर्ज बहुत है, जिसको तुम्हे चुकाना है ।

चार दिनों का मेला है बस, फिर वापस हो जाना है ।।


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