घाटी-घाटी चीख रही है
घाटी-घाटी चीख रही है
घाटी-घाटी चीख रही है, वादी में सन्नाटा है ।
छल से कई गीदड़ों ने मिल, कल शेरों को काटा है ।
आज पुनः कौरव खिलजी, गौरी के वंसज दिखते हैं ।
छली और कपटी फिर हमको, सीना ताने मिलते हैं ।
रक्त बहा है झेलम वाली, पतित पावनी घाटी में ।
छल के कुछ कण आन मिले हैं, भारत माँ की माटी में ।
चन्दन सी माटी के आगे, भला धूल क्या ठहरेगी ।
आँखों को भी पीड़ा देगी, मन को भी वह अखरेगी ।
यह भारत की मिट्टी है जो, बस इतिहास बनाएगी ।
पुनः पुनः इतिहास नहीं अब, आगे यह दोहराएगी ।
आसमान में केवल चीखें, और दर्द ही पसरा है ।
घायल मानवता का देखो, घाव बहुत ही गहरा है ।
भारत माँ की आँखों में भी, आज उमड़ता पानी है ।
ममता के सीने में उठता, दर्द-दर्द तूफानी है ।
अपने बेटों की अर्थी पर, रोना जिसकी शान नहीं ।
उसको भी इस विव्हलता में, खुद का कुछ भी ध्यान नही ।
आज बहन भी राखी वाला, हाथ चूमकर रोई है ।
अपने भाई के पौरुष पर, गर्वित होकर खोई है ।
और पिता सीने में कितना, दर्द छुपाये बैठा है ।
मन ही मन हत्यारों की वह, लास बिछाए बैठा है ।
सबकी केवल माँग एक है, दुश्मन का संहार करो ।
भारत भू पर छाये मातम, का सच्चा उपचार करो ।
दो कौड़ी का देश हमें फिर, आँख दिखाये, लानत है ।
आतंकी हमसे दोबारा, आँख मिलाये, लानत है ।
लानत है उन सभी सियासी, मन के पहरेदारों को ।
घर में घुसे हुए भारत की, सुचिता के हत्यारों को ।
आतंकी हमलों में भी जो, आज सियासत करते हैं ।
दो कौड़ी के हत्यारों के, लिए बगावत करते हैं ।
आतंकी को भाई कहने, वाले नीच दरिंदे हैं ।
अपने ही घर में कुछ बैठे, दुश्मन के बाशिंदे हैं ।
लानत देता हूँ उन देशों, को उनकी कायरता पर ।
जो अब तक खामोश खड़े हैं, आतंकी बर्बरता पर ।
आतंकी आकाओं को जो, अपने घर में पाल रहे ।
जलती मानवता पर प्रतिदिन, काला घी हैं डाल रहे ।
सोंच-समझ कर जिनकी भाषण, देने की औकात नहीं ।
हंसों के गुट में रहने की, जिनकी ऊँची जात नहीं ।
आज वहीं इस विश्व गुरू को, टेढ़ी आँख दिखाते हैं ।
राजनीति के चाणक्यों को, राजनीति समझाते हैं ।
काश्मीर की बलिवेदी पर, अब बलिदान नहीं होंगे ।
बहुत हो गया अब वीरों के, यों अपमान नहीं होंगे ।
हम प्रताप के वंशज रोटी, भले घास की खायेंगे ।
लेकिन अपमानित होने से, पहले खुद मर जायेंगे ।
कत्ल हुआ विश्वास, देश की, मिट्टी भी शर्मिंदा है ।
मानव में पशुता का दानव, कैसे अब तक जिन्दा है ।
शांतिवार्ता के प्रयास में, मिलनी बस नाकामी है ।
नासमझों को समझाना भी, केवल अपनी खामी है ।
विद्वानों की सभा कहाँ, गंगू तेली को भायेगी ।
भैंस के' आगे बीन बजाओ, भैंस खड़ी पगुरायेगी ।
एक गधे को घोड़ा समझो, ढेंचू-ढेंचू गायेगा ।
मुँह खोलेगा और तुरत, अपनी औकात दिखायेगा ।
भारत माँ की छाती घायल, चीख रही अब न्याय करो ।
नई क्रांति का शुरू पुनः तुम, वहीं नया अध्याय करो ।
शिशुपालों के झुण्ड ने' फिर से, कृष्ण तुम्हे ललकारा है ।
सूरज से लड़ने को व्याकुल, दीख पड़ा अँधियारा है ।
सौ गलती की नहीं प्रतीक्षा, कृष्ण तुरत संहार करो ।
अँधियारे को मिटा दिवाकर, दिन पर तुम अधिकार करो ।
कूटनीति के वार प्रभावी, एक तरफ से छोड़ो भी ।
और दूसरी ओर शत्रु के, बाजू तोड़ो-फोड़ो भी ।
जो खुद में न्यूक्लियर शक्ति का, दम्भ चढ़ाए फिरते हैं ।
उनसे कह दो हम हाथों में, चक्र सुदर्शन रखते हैं ।
नहीं तोतले, हम शेरो की, तरह दहाड़ा करते हैं ।
हिरणाकुश जैसे पापी को, चीरा-फाड़ा करते हैं ।
संस्कार की फसलों से ही, नींव बनाई जाती है ।
इस भारत की मिट्टी में, केसर उपजाई जाती है ।
दुश्मन को भी गाली देना, अपना नीति विचार नहीं ।
गाली दे जिसके हाथों में, पौरुष का हथियार नहीं ।
जिनको मानवता की भाषा, से थोड़ा भी प्यार नहीं ।
अपनी जिव्हा पर ऐसों का, नाम हमें स्वीकार नहीं ।
लेकिन रण करते हैं जब भी, शत्रु नाश हो जाता है ।
एक-एक हमला दुश्मन को, मृत्यु पाश हो जाता है ।
अब मौका है पुनः युद्ध का, विगुल बजा उठ जाएँ हम ।
एक-एक को चुनकर मारें, बिजय ध्वजा फहराएं हम ।
सौ दो सौ को मारेंगे तब, फिर से सौ उठ जाएंगे ।
खा पी कर फिर ताकतवर बन, वे हमसे टकराएंगे ।
अगर मिटाना हो तो पूरा, पेड़ खोदना होता है ।
फसल मिटाकर फिर से पूरा, खेत जोतना होता है ।
उसी तरह दुश्मन का जड़ से, पूरा काम तमाम करो ।
दुनिया के नक्शे से गायब, उसका पूरा नाम करो ।
कलयुग के अत्याचारी हैं, इनको पार लगा दो तुम ।
कंस और रावण सा इनको, भी इतिहास बना दो तुम ।
भारत में जो तुमको रोंके, समझो वो भी दोषी है ।
इस मिट्टी में रहकर भी वो, दुश्मन है परपोषी है ।
ये मत सोंचो कलयुग में अब, कोई कल्कि जगायेगा ।
आने वाला समय तुम्ही पर, ऊँगली सदा उठायेगा ।
हर बोले के नारों से अब, पुनः गगन गुँजार करो ।
दुश्मन पर धावा बोलो तुम, ब्रह्म शक्ति का वार करो ।
इस मिट्टी का कर्ज बहुत है, जिसको तुम्हे चुकाना है ।
चार दिनों का मेला है बस, फिर वापस हो जाना है ।।
