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Pushpindra Bhandari

Drama

3.9  

Pushpindra Bhandari

Drama

गौतम बुद्ध

गौतम बुद्ध

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जाना तय था मेरा,

पर जब उसे देखता तो,

मन ठहर जाता था।


किस अवलम्बन पर छोड़कर जाता,

उसे, जो मुझ में अपना,

सारा संसार देखती थी।


फिर सहारा आ गया उसका

'पुत्र'

जानता था, अब उसमें व्यस्त हो

जाएगी।


जीवित रह पाएगी मेरे बिना भी,

अपने पुत्र के लिए।


मैंने नहीं देखा अपने बेटे को,

शायद मन में डर था,

कहीं मोह ना हो जाए।


रात के अंधेरे में,

चुपचाप निकल गया था,

बहुत भटकने पर मिल गया,

वो जिसकी खोज थी।


वापस लौटा महल में तो,

उसको ढूँढ़ती रही मेरी आँखें।


सब आए मिलने,

बस वही ना आई,

मानिनी का मान भंग हुआ था ना।


मैं स्वयं गया उसके महल में,

जो देखा उसके लिए,

खुद को तैयार नहीं पाया था।


साफ पर बहुत पुराने,

सादे वस्त्र में,

क्या वह मेरी ही यशोधरा थी !


"आए सिद्धार्थ"

पहली बार उसकेे मुंह से,

अपना नाम सुनकर चौंका था।


मैं तो गौतम बनकर,

मिलने गया था,

"सिद्धि प्राप्त की है तो आप सिद्धार्थ ही हैं।"


"इस संसार में,

जिसे अपना कह सकती हूँ,

तो बस यह है मेरे पास।"


कहते हुए,

अपने छ वर्षीय पुत्र को,

मेरे चरणों में डाल दिया।


"यही आपको अर्पण कर सकती हूँ"

निःशब्द रह गया था मैं।


सिर्फ उस बालक के सिर पर,

हाथ रख पाया था बस,

बस.......



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