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DR ARUN KUMAR SHASTRI

Tragedy Fantasy

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DR ARUN KUMAR SHASTRI

Tragedy Fantasy

फ़र्ज़ एक तरफा

फ़र्ज़ एक तरफा

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अश्क बहते रहे हम सिसकते रहे। 

दर्द सीने का थमने को आया नहीं। 


आशिकी क्या हुई इक मुसीबत हुई। 

जिंदगी का ये लतीफा तो भाया नहीं। 


रौशनी जब चरागों से जाने लगी। 

रास्ता रूह को किसी ने तो दिखाया नहीं। 


तुम चले भी गए जख्म देकर गए। 

सिलसिला ये मीत रुकने को आया नहीं। 


मौसिक़ी रो रही तिश्नगी सुबकती रही। 

इनका ऐसा सुबकना हम को सुहाया नहीं 


अर्ज़ करता रहा और मर्ज़ बढ़ता रहा। 

साथ दोज़ख में किसी ने निभाया नहीं। 


मोहब्बत तो नियमों की मोहताज़ न थी 

फ़र्ज़ एक तरफा लेकिन हमको बताया नहीं   


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