फ़ारिक हो सके ना हम...
फ़ारिक हो सके ना हम...
फ़ारिक हो सके ना हम उसकी निगाहों की धार से,
के रह रह दिल वो अब भी चीर जाती है...
मासूम लगती थी कभी जो हँसी शबनम सी पाक,
रह रह के क़यामत वो अब भी ढा जाती है...
तैश-ए-वफ़ा उठती गिरती वो आफ़ताबी आँखें,
तमन्नाएँ तमाम आज भी राख किये जाती है...
रोज़ देती थी सदका उसके हुस्न पे क़ातिल जो अंगड़ाई,
रह रह होश अब भी वो ज़ार ज़ार किये जाती है...
फ़ेहरिस्त ही में नही था जो ख़लिश रुख़ पे आये,
क्युँकर जालसाज़ बला वो अब हमें किये जाती है...
छुपा लेते थे ख़ुद को मुसलसल जिस रूह की गहराईयों में
'हम्द', ग़म के कफ़न तले आशियाना मेरा वो अब राख किये जाती है....