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Garima Mishra

Abstract

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Garima Mishra

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एक सफर

एक सफर

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वो भी क्या दिन थे

जब हम घर के जिन्न थे


गलियों में चिल्लाते थे

किसी के भी घर चले जाते थे

दोस्तों के साथ बैठकर खूब गप्पे लड़ाते थे

Maths के class में टीचर को सताते थे


इतनी बदमाशियां कि,

हर रोज कोई ना कोई

complain लेकर घर आ जाते थे

जिसे देखो सब डांट लगाते थे

मगर अगले ही पल इतना प्यार जताते थे

कि हम सांतवे आसमान पर पहुँच जाते थे


बचपन के वो दिन

जब हम छोटी-छोटी बातों पे

कितना खुश हो जाते थे।


अब हम इतने बड़े हो गये कि

घर जाने का वक्त नहीं निकाल पाते हैं

अब किसी को नहीं सताते हैं

बेवजह तो क्या वज़ह

मिलने पर भी नहीं मुस्कुराते हैं


अब हम इतने बड़े हो गये

कि अगर बचपन के उन

गलियों में जाते हैं

तो सिर्फ सन्नाटा ही पाते हैं।


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