एक नदी ऐसी भी
एक नदी ऐसी भी
एक नदी चली कल-कल करती,
भूल गयी रुकना शायद,
भूल गयी थकना शायद,
नावों की हर मन्ज़िल बनती,
संग मुसाफ़िर राहें चलती।
कहीं वेद-पुराणों में,
कहीं गंगा-गोदावरी नामों में,
सतत् तुम्हारी दिनचर्या,
बात चल रही अनादि से।
कितने ही नाविक फिसले,
भटक गये थे राहों से,
तूने जग मार्गदर्श किया,
माता-जननी के रागों से।
-ज्ञायक
