एक मौका और दीजिये
एक मौका और दीजिये




पाँच वर्ष पश्चात
खादी के
कुर्ता पाजामे में
सुसज्जित
सिर पर
गांधी टोपी आँखों पर रे-बेन का
काला चश्मा
पैरों में रिबोक के जूते पहने
सुरक्षाकर्मियों से लेस
हाथ बांधे व्यक्ति को
द्वार पर खड़े देखकर
आम आदमी ने पूछा,
'कौन हो भाई,
हमने पहचाना नहीं...।'
' जनाब, हम गरीबदास
आपके सेवक...
एक मौका और दीजिये। '
आगन्तुक ने खींसे
निपोर कर कहा ।
'गरीबदास...आप वह नहीं हो
जिन्हें हमने वोट दिया था…।
कंधों पर थैला लटकाये
चप्पल चटकारते,
पेट को आंतों में धँसे
उस कमजोर, मरियल व्यक्ति में
समाज सुधार का
जज्बा देख हमने सोचा था,
हमारे मध्य पला बढ़ा
यह आदमी निश्चित रूप से
हमारी समस्याओं का
हल ढूंढ पाएगा... ।
पर तुम भी
औरों की तरह ही निकले... ।'
श्रीमान जी के चेहरे पर
हताशा निराशा के साथ
क्रोध भी था ।
'नहीं भाई हम वही गरीबदास है
आपकी समस्याओं का
हल ढूँढते-ढूँढते
हम स्वयं उलझ गये थे,
एक मौका और दीजिये जहाँपनाह,
जिससे... आपकी गरीबी
हम कर सकें दूर…।'
कहते हुए
इस बार उस चेहरे पर
याचना नहीं
कुटिल मुस्कान थी ।
'सच कहते हो…
तुम अपनी समस्यों में
इतना उलझे
कि अपनी गरीबी को दूर कर
अब फिर वोट माँगने आ गए,
जाओ...जाओ
अब हमें और न उलझाओ ।'
कहकर श्रीमान ने
दरवाजा बंद कर लिया ।