शत्रुघ्न तुम उपेक्षणीय बने रहे
शत्रुघ्न तुम उपेक्षणीय बने रहे
रामचरित मानस
इतनी बड़ी रची
महाकवि तुलसीदास जी ने
किंतु शत्रुघ्न तुम सदा
उपेक्षणीय बने रहे।
राजा दशरथ के
पुत्र तुम भी थे
श्री राम, लक्ष्मण ,
भरत की तरह
राम को यश मिला
लक्ष्मण को पुण्य मिला
भरत श्रीराम की
खड़ाऊ पाकर
धन्य हुए
किंतु शत्रुघ्न तुम
उपेक्षणीय ही बने रहे ।
आखिर क्यों ?
माता कैकई को
कुबुद्धि देने वाली
दासी मंथरा को
दंड तुमने दिया
तुलसी यहाँ भी
मौन ही रहे
क्यों आखिर क्यों ?
श्री राम के
खड़ाऊ को
सिंहासन पर कर आसीन
अभिशापित जीवन से
मुक्त पाने हेतु
चौदह वर्ष भरत ने
कुश की कुटिया में
व्यतीत किये
और तुमने निर्लिप्त भाव से
राजसी वैभव त्याग
भरत का सेवक बन
राज्य की सेवा का भार
अपने कंधों पर ढोते रहे ।
क्या यह तुम्हारी
महानता नहीं थी,
क्या यह तुम्हारा त्याग
और बलिदान नहीं था
कर्तव्य की वेदी पर
अभिशापित जीवन
ढोने का।
फिर भी शत्रुघ्न तुम सदा
उपेक्षणीय ही बने रहे
उपेक्षणीय ही बने रहे।
