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Shravani Balasaheb Sul

Abstract

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Shravani Balasaheb Sul

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एक ख्वाब में गुमशुदा रात

एक ख्वाब में गुमशुदा रात

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एक ख्वाब में गुमशुदा रात

बेमंजिल सफर सी लगती है

ना मुकाम की कुछ खबर

चल पड़ी यूँ ही दर ब दर

ओढ़ के ख्वाहिशों की चादर

आशा का चिराग मगर टूटी गागर

तो जो भी उसने अँधेरे में पा लिया हैं 

सुबह के उजाले में खो दिया हैं

यह पाना और खोना यूँ ही चलता रहता

जब तक आँखों के साथ जहन नहीं जाग जाता


एक ख्वाब में गुमशुदा रात पहेली सी लगती है

उसे जागना भी हैं मगर सोना भी है

ख्वाब जीना भी हैं मगर देखना भी है

जाग जाए तो ख्वाब टूटना ही हैं

गर सो जाए तो ख्वाब गुम होना ही है

तो खुली आँखों से सोना और मदहोशी में जागना

रात ने चुना हैं ईस कश्मकश में कहीं का न रहना

जागती सोती रात करवट बदलती रहती

जब तक मन की वह सिलवट सवर नहीं जाती


एक ख्वाब में गुमशुदा रात एक सजा लगती है

कभी एक अरसे तक ना कटती 

तो कभी पल में ही सवेरा ले आती

ना रूह की तह तक उतरती

ना धड़कनों को आजाद करती

यूँ ही सताती रहती कोई कहानी सुनाती रहती

खुद ही से रूठ के खुदको मनाती रहती

इसी तरह रात की बेढंग दिनचर्या चलती रहती 

जब तक मन की घड़ी वक़्त की रफ़्तार पकड़ नहीं लेती ।


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