एक जर्जर सोच
एक जर्जर सोच
वो एक सशक्त किला था,
शायद उसे यह समझा दिया था,
कि वो सशक्त है,
उसका कार्य ही सुरक्षा है,
वह नही बह सकता भावो में,
न खो सकता है अश्रुप्रवाहो में,
कोई उसे भेद नहीं सकता,
कोई उसे तोड़ नही सकता,
सभी आधीन है,
उसकी बनाई दीवारों में,
बंद दरवाजों के कमरों जैसे,
उसने अपनी आंखे भी बंद कर ली,
शायद सोचता रहा,
सुरक्षित है सभी,
पर दरवाजों के पीछे की सिसकती कराहे,
वह सुन न सका,
या उसे सिखा दिया था उसके परिवेश ने,
न सुनना है तुझे, न खोना है, न रोना है,
वह न रोया, न भावनाओ में खोया,
पर बन गया उस पाषाण का दर्द,
दीवारों की सीलन,
कमजोर कर गया वो किला,
जो था कभी सशक्त,
विरासत में दी गई सोच से,
आज वह किला कमजोर हो रहा है,
नही उठा सकता अब वह सशक्ता का दिखावा,
आखिर उसका आधा रूप तो,
दीवारों के पीछे कैद है,
तो कैसे हो सकता है वो पूर्ण,
यही तो एक कहानी है,
पुरुष और नारी की,
पुरुष किला बन सुरक्षा के नाम,
कैद करता गया और,
नारी कैद स्वीकार करती गई,
और हो गए दोनो अपूर्ण,
हो गया समाज जर्जर,
विरासत में मिली एक अपूर्ण सोच से,
आज गिरते इस किले की दीवारें,
पुनः बनानी है,नर और नारी को संग संग,
बनाने को एक सम्पूर्ण समाज,
एक सम्पूर्ण समाज।।
