एक आह (कविता)
एक आह (कविता)
जिंदगी कभी
एक सी नहीं रहती,
ज़रा सी खुशी मिलती है
तो दहलीज पर
आंसू दस्तक दे देते हैं।
अपनी घुटन, तन्हाई, तड़प, दर्द,
अकेलेपन को
एक व्यक्ति आसानी से
झेल सकता है।
निराशा के गर्त से उभरने के लिये
प्रति पल प्रयासरत रहता है,
मगर जब बेवजह
इस दिल को ठेस लगती है ,
काबलियत पर प्रश्न चिह्न लगे,
हुनर को शक की नजर से देखा जाये,
स्वाभिमान आहत हो ,
तब साधारण व्यक्ति ही नहीं,
बुद्धिजीवी के दिल से
जो आह निकलती है ,
वह समुद्र में उठती हुई
लहरों के सैलाब से कम नहीं होती।
किसी सुनामी से कम नहीं होती।
उस आह से या तो वह खुद जल जाता है
या फिर उसकी आह
जमाने में मशाल बनकर
कायरों को राह दिखाती है।
यह आह जो कभी उसकी अपनी थी,
औरों की हो जाती है।
तब उसकी मैं 'हम' में बदल जाती है
तब उसका अस्तित्व, व्यक्तित्व
व्यक्तिवाचक से जातिवाचक बन जाता है।