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द्वंद

द्वंद

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चल डगर,

न कर फिकर,

चल सके, 

तो बढ़ निडर।


पर्वतों की धार पर,

प्रकृति का श्रंगार कर,

मनुज बन मनुजता का, 

अब कोई काम कर।


जग चुका है तो अब,

घोर सिंघनाद कर, 

कुम्भकर्ण सुप्त हैं,

शमशीरों से वार कर।


अंबरों की चोटी पर,

अमृत्व का संधान कर,

भीषण, प्रचण्ड रण,

शत्रु मन, खुद लड़,

खुद पर प्रहार कर।


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