दुविधा
दुविधा
एक बेटी की दुविधा बताती हूं
आज में एक कविता सुनाती हूं
घर के आंगन को खुशियों से भर देती है
वो बेटी होती है जो मकान को घर कर देती है
में ने महलों कों विरान होते देखा है
जिस घर बेटी नहीं वो घर अशांत देखा है
फिर क्यों बेटी के पैदाइश कि खुशी नहीं होती
खुशियों से मेहका देती है हसी जिसकी
क्यों बेटियां शादी के बात मायके कि नहीं होती
क्यों बचपन का उसका आंगन उसका अपना नहीं होता
मैने बेटियों को दुनिया चलते देखा है
देश कि सीमायो से आंतरिक तक जाते देखा है
एक साथ ससुराल और मायका दो परिवार चलाते देखा है
फिर क्यों उससे कमजोर कहा जाता है
दुनिया आज भी बेटी को भूख बताती है
उससे बेटी कि विवशता को और क्या व्याख्या करूं
वह भोज नहीं दुनिया को कैसे साबित करें
बस इसी बात का अफसोस मानती हूं
में आज आपको ये कविता बताती हूं।
