दस्तूर
दस्तूर
बाहर जो निकला मैं अपने घर से, तो ये जाना मैंने
करो कम, मगर ज्यादा जताना पड़ता हैं।
सबब बैरंग लौटने जो पूछा खत से, तो ये जाना मैंने
हर्फ कम, खत को ज्यादा सजाना पड़ता हैं।
मुद्दतो बाद मिला वो अजनबी मुझ से, तो ये जाना मैंने
मिले न दिल, मगर हाथ मिलाना पड़ता है।
वो रूठा जरा सी बात से, तो ये जाना मैंने
जमाने के लिए, न चाहो फिर भी मनाना पड़ता है।
अस्हाब हुआ वो जब से, तो ये जाना मैंने
न हो कुर्बत, गले फिर भी लगाना पड़ता है।
मिला जो कल उसके घर में रकीब से, तो ये जाना मैंने
न चाहो, दस्तूर फिर भी निभाना पड़ता है।
अग्यार सा दिखा वो मेरे नाम से, तो ये जाना मैंने
भुला कर के गुजरे कल, आगे बढ़ना पड़ता है।