दर्पण
दर्पण
बन-ठन मैं तेरे यादों की दर्पण में
दिखती रही तेरे वादों की बंधन में
महकी सी तेरी सौंधी सौंधी सी खुशबू
बिखरी जैसे मेरे मस्कन की आंगन में
डरती हैं सांसे दूर हवा की झोंके से
कोई इक आहट होते ही चिलमन में
दरीचे पर चांदनी भी आज फीकी है
छुप जो गया चांद बादलों की दामन में
इंतज़ार अब ये बढ़ती जा रही "आम्री"
ना रैन बिता चांद आने की उलझन में।

