नदी मैं धारा प्रीत की!!
नदी मैं धारा प्रीत की!!
आज गुज़रे थे,
फिर से तेरे गली से,
तेरे आशियाने को निहारते,
आज मचले थे,
फिर से तेरे इश्क़ में,
तेरी बेवाफ़ाई पर मुस्कुराते।
आज बिखरे थे,
फिर से मेरा काजल
तेरे नाम के अश्क नैन बहाते।
जब याद आया मुझे
की अब तो सब बीत चुका है,
फिर क्यों मुझमें रवानगी अभी बाकी है,
क्यों अँखियाँ तेरे दीदार को तरसते?
कुछ पल बीते
बीते कई दिन
अब तो अरसा भी बीत गया
फिर क्यों गम मेरे ठहरे पानी सा है?
क्यों यामिनी बेदर्दी न मेरे बीते?
इक आखिरी बार खुद से
फिर से
खाई मैंने कसम
अब न चलूंगी वो राह न वो गली
जो तुझ तक मुझे है लाते।
कितना भी तू कठोर बन,
मैं नदी हूँ धारा प्रीत की,
बहती हूँ सीना पर्वत का चिरके।
बहती रहूंगी बन लहू तेरे दिल के चौराहे पे।
इक आखिरी बार है तुझ से कहना,
आँखों में इंतज़ार को ठुकरा के,
कसम बहती प्रीत की-
अब ये नदी न मिलेगी तुझ से कभी,
तेरे दिल -दरिया में लहरा के।