गीले मन की तड़प
गीले मन की तड़प
ठहराव के पथ पर अपलक गीले मन की तड़प
उस पल-छिन को ढूँढती है,
जो मेरी मकान को घर बनाने की जद्दोजहद में
हम दोनों के दरमियां से फिसल गए हैं।
इश्क की छत से कभी टपक रही थी चाहत
वही आज सहरा सी सूखी है,
पहली बूँद को तरसते चातक सी मेरी बेबसी फ़फ़क रही है।
तुम्हारी खुशबू ढूँढती हूँ हथेलियों को नाक की नोक पर रखकर,
महज़ हींग मसालों की खुशबू से लिपटे हाथ में
कभी इन हाथों से तुम्हारी अधजली सिगरेट की सुगंध
सराबोर करती मेरी नासिका को उन्माद से भरती थी।
याद है मुझे वो शाम की सैर..
समुन्दर की गीली रेत, ढ़लती धूप, तुम्हारा हाथ थामें मौन संवाद की गुफ़्तगु,
हवाओं से उड़ते पल्लू का तुम्हारे चेहरे को चूमना।
मुझे नागवार था तुम्हारे चेहरे को चूमती हवाओं का इतराना
साथ चलते देह से देह टकराते ही दिल मेरा फुदक कर
तुम्हारे गाल को छूने मचल उठता था।
ओ तेरी, ये लम्हें तो रसोई की चौखट पर ही पड़े हैं
जब मैं आटा गूँधती थी, तुम मेरी लटें सँवारते थे,,,
मैं गीला आटा तुम्हारे गालों पर मिलती थी, उफ्फ़ रो दूँगी हाँ अब......
"ये घड़ी की टिक-टिक पर गुज़रते लम्हें कभी जश्न थे हमारी ज़िंदगी के"
हाँ जश्न ही तो थे, तुम्हारी पनाह में जो सिमटकर पड़ी रहती थी
तुम मदहोश होते हर पल को उत्सव में बदलते थे।
रूठ तो नहीं गए वो लम्हें, छुअन की हरारत
और कशिश स्मृतियों में तो तरोताज़ा सतत प्रवाहित से बहते हैं
कोहरे में मुँह से निकलते धुएँ से स्पंदन हो गए उठते ही छंट रहे हैं।
एक रफ़्तार की कमी है शायद,
घर के शोरगुल से आँखें चुराकर एक ख़ता कर लो,
कोई ना देखे जब हौले से मेरे गालों पर अपने लब रख दो,
और मैं लहराती सी पसर जाऊँ तुम्हारे बाजूओं में।
"याद है ना मेरा तुम्हारे कान काटना,
यकायक पीछे से आकर तुम्हारा मुझको बाँहों में भरना"
धत्त तेरी की ,उस समुन्दर के उफ़ान में बहते हम
बिस्तर पर बिछी चद्दर को करवटों से सिलवटों में बदलते
आहिस्ता आहिस्ता एक दूजे में अंतर्ध्यान हो जाते थे।
आज हतप्रभ सी खड़ी नम आँखों से
उन सारे पलों को फिर से ओख में भरने बेकल हूँ....
बिखरे हुए प्रीत के मधुर कण हम दोनों के दरमियां
सूख रही नदी के तट के बीचों बीच चाहत का कुआँ खोदकर बोना चाहती हूँ।
फूल दल से कोमल अहसास गिरह छुड़ाकर रिस गए हैं ,
नोच लेना चाहती हूँ बिछड़ी हुई अपने हिस्से की खुशियाँ ज़िंदगी की आपाधापी से।
ये कैसा पड़ाव आया है ,चलो ना उस क्षितिज पर चलते हैं
जहाँ चाँद ओर सूरज भी शाम रात के दरमियां एक बार तो मिलते हैं।
तुम थोड़े अजनबी से लगने लगे हो
करीब लाकर बेहद अपना सा बना लूँ ओढ़ लूँ तुम्हें आँचल बना लूँ।
सरताज सा सजा लूँ मेरा अनमोल गौहर हो दिल की संदूक में छुपा लूँ।
कौन से जतन पर मुमकिन है मिलना ये मेरी तलाश के लम्हों का ?
वो वरमाला, वो सात फ़ेरे, वो हस्त मिलाप,
वो तुम्हारा मेरी मांग भरना, वो मंगलसूत्र का बंधन,
वो सुहागरात का मखमली उन्माद, वो मेरा शर्माना, तुम्हारा थोड़ा सा घबराना,
गृहस्थाश्रम की नींव में भरोसे के बीज बोना
क्या बीता वक्त लौटकर आता है ?
नहीं ना?
एक मयस्सर डोर बुन लेे चलो कुछ अल्फ़ाज़ों को रट लें
बस दिमाग की पटरी पर दोहराने होते हैं प्यार की नमी से सींचकर,
अपाहिज हो गए स्पंदन को परवाह की बैसाखी से
प्यार के पायदान पर बिठा कर वो अल्फ़ाज़ दोहराते हैं
जंग लगे दिल के दरवाजे तोड़ देते हैं।
कहो ना आज एक बार फिर
"आइ लव यू"
मैं भी कहूँगी आई लव यु टू
देखो पनप रहे हैं फिर से वो लम्हें आओ मिलकर चूम लें,
अब फिसलती रेत से लम्हों को फिसलने ना दूँगी,
थोड़ा ओर करीब आओ ना,
चाबियों के छल्ले में तुम्हें भी पिरो कर कमर पर कस लूँ
और उन लम्हों को कैद कर लूँ हमेशा हमेशा के लिए ताकि हमसे बिछड़ने ना पाए।।
(भावना ठाकर)