द्रोपदी के मन की व्यथा
द्रोपदी के मन की व्यथा
अस्तित्व मेरा भी था,
नारी होने का सम्मान मेरा भी था .....
फिर क्यों बाँट दी गई मैं,
पाँच पतियों के बीच ...
क्या मेरा स्वाभिमान नही था ... ?
थे तुम .... सखा मेरे,
थे तुम इस जगत के खेव्या ....
कैसे तुमने ....सामूहिक पत्नी के,
फैसले को स्वीकार किया ....
क्यों नहीं तुमने विरोध ... लगातार किया ...?
बाँट दी गई मैं ...
जैसे मैं कोई सामान थी,
किया इस तरह बँटवारा मेरे अस्तित्व का .....
जैसे मैं कोई खिलौना थी .....
है सखा ! तुम ही कहो अब,
क्या वाकई ... मैं ..!
दिल बहलाने की वस्तु थी ...?
फिर भी स्वीकार हर फैसला किया,
भरोसा था अपने सखा पर .....
बँटवारे वाला ये जीवन,
हँसते हुए स्वीकार किया .....
मेरा पति .... नहीं बँटवारे की,
सौगात में मिला पति ....
कैसे धर्मराज कहलाया ...?
दाँव पर लगा दिया पत्नी को,
क्या युधिष्ठिर का एकल मुझपर अधिकार था ....
सभाजनों के वरिष्ठो ने,
क्यों नहीं उनके धर्मराज को रोका ....
क्यों दूसरे भाइयों ने विरोध,
अपने भ्राता का नहीं किया ....
दो उत्तर तुम सखा मुझे,
क्या मुझसे ...
उनके कुल का स्वाभिमान नहीं था ... ?
धर्म की व्याख्या हर समय,
मेरे पति के होंठों पर रही ....
फिर वो धर्म कैसे भूल गए,
बुलाया गया जब मुझे सभा में,
तब मेरे पाँच पतियों के शीश क्यों झुक गए ... ?
ना स्वयंवर का मान रखा गया,
ना कुलवधू का मान रखा गया ...
ना सभा का मान रखा गया,
केशों से खींचकर लाई गई थी में .....
उस सभा में ... जहाँ धर्मराज था .....
किसी ने हारा मुझे,
किसी ने जीता था ....
वस्त्र खींचे गए मेरे,
तब भी सभा में ...
सब कुछ मौन था ...
एक तुम थे सखा,
जिसने मेरी लाज बचाई थी .....
सखा होने की रीत निभाई थी ....
सखा निःशब्द हो रही हूँ मैं,
फिर हर पीड़ा को झेल रही हूँ मैं .....
बताओ सखा ....
दुशासन ... दुर्योधन ...
और मेरे पतियों में क्या अंतर था ....
केवल एक कृण ही था,
जिसने अपनी परवरिश वश ....
कुछ मेरे लिए बोला था .....
कैसे आधार मैं महाभारत हो गई ....
कैसे धर्मराज स्वर्ग के काबिल हो गया ...?
कैसे तुम ने सखा ... ये सब होने दिया ...
जिसने चाहा उसने मुझे दर्द दिया ....
मेरी आत्मा को कलंकित किया,
अग्निकुंड से निकली थी मैं ....
हिमालय की राहों में, मेरा अंत लिखा है ....
एक सफर तय किया मैंने,
जो केवल अर्थहीन था ....
सवालों का बोझ था हृदय में, मेरे ....
जवाब की अब ना कोई लालसा है ....
हो तुम सखा मेरे ... बस हृदय को मेरे,
ये ही प्रसन्नता है ....
कहती हूँ अलविदा तुम्हें ....
तुम ही मेरे सच्चे सखा थे ....