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अधिवक्ता संजीव रामपाल मिश्रा

Tragedy

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अधिवक्ता संजीव रामपाल मिश्रा

Tragedy

दिल का हाल लिखते हैं

दिल का हाल लिखते हैं

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हम दिल का हाल लिखते हैं,

वो कहां पढ़ते और समझते हैं,

उन्हें मालूम शर्मिंदा पढ़ते होते हैं,

हकीकत जो हम लिखते हैं।

लिखता दिल की बात,

होते जुदा वट से पात,

आखिर बन ही जाती,

नज्म दिल की साद।

बेवफाई हुई है,

जग हंसाई हुई, 

रिश्ते टूटे दिल टूटा है,

पीर पराई हुई है,

जिंदगी की राह में,

बेवफाई हुई है।

जिन उम्मीदों से प्यार किया,

जिन वादों पर ऐतबार किया,

वो वादे उम्मीदों के साथ टूटे,

दिल की चाहतों ने बर्बाद किया।

हमने आजतक यह न माना है, कि

उसने हमसफर कोई और माना है।

उसकी याद में हम कुछ लिख देते है,

जलते अरमान टूटते जज्बात बिखेर देते हैं,

उठाले गम कोई मेरा हमसफर बनकर,

आवाज़ दिल की स्याही से लिख देते हैं।

चंद तारों के टूटने से आसमां खाली नहीं होता,

कोई अपना दामन छोड़ दे तो अपना नहीं होता।

वो मेरे गम से खुशी लेकर जाते हैं,

जो मेरे अपने बनकर जिंदगी में आते हैं।

उस बेवफा का जब भी चेहरा याद आता है,

कलम कागज़ पर नज्म दिल की लिख जाता है।

उसे मालूम न हो प्यार क्या होता है,

जिंदगी में चाहतों का हाल क्या होता है,

इसीलिये छुपा लेता हूं गम अपना हंसकर,

वो बेवफा खुश रहे जिसे प्यार नहीं होता है।

जिस गली में कभी हमें,

 दामन ए यार मिलते थे,

वो गली बदनाम हो गई,

जहां साथी यार मिलते थे।

वो क्या जाने सच्चे प्यार की कीमत क्या होती है,

जिसने बिछा दिया हो अपना दामन गैरों के लिये,

वो क्या जाने दिल की चाहत क्या होती है,

जिसने अपनो को छोड़ कर चाहा हो गैरों के लिये।

वो कभी कभी अब प्यार जताते हैं,

फिर मतलब ए परस्त हो जाते हैं।

वो गैरों से मिलते रहे,

हम ऐतबार करते रहे,

वो जब भी आये गैरों से मिले,

हम इंतजार करते रहे।,

वो खुद के लिये जिये, 

मेरे दामन ए यार जो रहे।

मैं क्या लिख रहा हूं,

यह जमाना जान रहा है,

मैं क्यों लिख रहा हूं,

यह फसाना याद रहा है,

मैं क्यों बुन रहा शब्दों के मोती,

जिंदगी में बहुत हसरतें होती,

अब कलम उठा रहा हूं,

दर्द सीने में दिल का है ,

लहू आंसू बन रहा है घुटकर,

अल्फाजों में दर्द बांट रहा हूं

हो आखिरी शाम का ताकाजा,

बेखबर जिंदगी गुजार रहा हूं।


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