दीपक
दीपक
मैं हूँ एक नन्हा सा दीपक।
हस्ती मेरी ज्यों सागर में सीपक।।
फिर भी पल पल जलता हूँ।
नित ही अंधेरे से टकराता हूँ।।
गला गला निज रोम रोम।
चाँदी भरता दामन व्योम।।
दम घुटता है मेरा क्रूर अंधेरे से।
तभी सजाता निशा केश तारों से।।
शशि का यह उजला दर्पण।
है मेरी खुशियों का अर्पण।।
पूर्णिमा बन चांदनी बरसाता।
कण कण को अमृत पिलाता।।
अवनी से अंबर तक सजाता।
प्रभा पुंज सम सेतु बाँधता।।
स्याह शोषितों का क्लेश हरता।
खा थपेड़े बुझ बुझ कर जलता।।
देती असीम तृप्ति यही क्षमता।
बदलती गुरुता में लघुता।।
तूफानों से मैं न घबराता।
धुंध में भी इंद्रधनुष लहराता।।
मैं हूं एक नन्हा सा दीपक।
करता सृजित मोती बन सीपक।।
