दिहाड़ी मज़दूर
दिहाड़ी मज़दूर
मैं दिहाड़ी मज़दूर हूँ
घर से निकलता हूँ
निवाले की ख़ोज में
जूतियाँ चटकाता हुआ
दो जून की रोटी का
जुगाड़ हो जाए
फटे हाल फटा कुर्ता
फटी जूतियों में उँगलियाँ कॉँपती
जा बैठता हूँ चौकड़ी पर
गण्ठा और रोटी कांख में दबाये
किसी की मेहर हो जाए
काम पे अपने घर ले जाए
आते ही महाशय
मुझे ऊपर से नीचे तक निहारते हैं
मेरी देख - परख पर डालते हैं
आशवस्त होते ही हामी भरते हैं
कोई चोर तो नहीं
फ़िर ऐसे क्यूँ निहारतेे हैं ?
बच्चे पालने के लिए मेहनत
मज़दूरी करता हूँ
भीख तो नहीं माँगता
स्वाभिमानी हूँ मैं
हाथ तो नहीं फैलाता
बिना कमाई के नहीं खाता
ठेकेदार के हाथ लग जाऊँ
मुर्गी बना काटता है
अपना उल्लू साधता है
मेरी मज़बूरी भाँप
चुग्गा उस हिसाब से डालता है
घुन की तरह चक्की में
पिस रहा हूँ मैं
दो पाटन के बीच में
जकड़ा हुआ हूँ मैं
ठेके पर जाऊँ
पसीना ज़्यादा आमदनी कम
दिहाड़ी मज़दूर बनूँ
रोज़ काम न मिलने का ग़म
रोज़ कमाता हूँ रोज़ खाता हूँ
बीमार हो जाऊँ अगर
खांस - खांस के हाँफता हूँ
न बीमा न पेंशन
बच्चों के भविष्य की भी टेंशन
लगता है कोई मसीहा
"शकुन" आएगा
हमें इस फ़टेहाल से मुक्ति दिलवाएगा !!