धुँध
धुँध
कभी देखा है...
साफ़ आसमान में
चाँद तेज़ तो चमकता है
पर उतना सुंदर नहीं लगता
जितना वो तब लगता है
जब जब घिर जाता है धुँध से
और छनती हुई रोशनी में
चारों तरफ़ रंगीन प्रिज़्म बना लेता है...
सब ठीक ही लगता है तुम बिन
जैसे अन्धेरे को दीया जला कर मिटा लिया...
पर मैं जानती हूँ...
तुम्हारे न होने का अंधेरा
मेरे मन में गहरा जाता है...
ये चाँद की रोशनी
और ये यादों की धुँध
खारी बारिश में रेनबो बना लेते है अपने
निराधार है न मेरी सोच
तो जीवन भी कुछ ऐसा ही है,
इस सोच के बिना...
ये हवा, पीपल, तारे सितारे
सब बहाने है,
मन को पागल बनाने के...
दिल दर्द में तब भी मुस्कुरा जाता है
जब जब सोचती हूँ कि तुम ख़ुश हो तो
सार्थक है मेरा धुँध बन
आते जाते रहना तुम्हारे क़रीब
शायद प्रिज़्म बन जाये कभी...
