धरती की पीड़ा
धरती की पीड़ा
हरी-भरी थी कभी आज हुई वीरान है
देख दशा अपनी धरती मां परेशान है।
पुत्रवत पाला जिस मानव को
नित्य कर रहा वही अत्याचार है
देख दशा अपनी धरती मां परेशान है।
नित्य कट रहे हरे-भरे जंगल
बन रहे आलीशान मकान हैं
निज स्वार्थ में लीन मानव
बदल रहा आचार-विचार है
देख दशा अपनी धरती मां परेशान है।