पिया का घर
पिया का घर
छोड़ बाबुल का घर जब मैं पिया के घर आई,
नये लोगों के बीच थोड़ा सहमी और संकुचाई;
जैसा सुना था मैंने, उससे अलग सबको पाई,
ससुराल वालों ने मुझसे ऐसी प्रीति लगाई।
जीवनसाथी के रूप में एक सच्चा साथी पाई,
खुशियों पर मेरी जिसने, अपनी खुशियां लुटाई;
स्नेह मिला इतना मुझको, कभी लगा नहीं मैं पराई,
छोड़ बाबुल का घर जब मैं पिया के घर आई।
सास-ससुर के रूप में मैं, अम्मा-बाबू को पाई,
देवर और ननद ने की, भाई-बहन की भरपाई।
जेठ-जेठानी में मैंने, सिया राम की छवि पाई,
थामा हाथ हमेशा मेरा, जब कभी मैं डगमगाई।
पत्नी संग मैंने भाभी, चाची की भूमिका निभाई,
सदकर्मों से अपने, सबके दिल में जगह बनाई;
कर्तव्य पथ पर चलते-चलते ढेरों खुशियां पाई,
छोड़ बाबुल का घर जब मैं पिया के घर आई।
बहू नहीं बेटी का प्यार, ससुराल वालों से पाई,
दामन में मेरे खुशियां ही खुशियां भर आई,
छोड़ बाबुल का घर जब मैं पिया के घर आई।
स्वरचित मौलिक रचना
रचनाकार- सुनील कुमार
जिला- बहराइच, उत्तर प्रदेश।
मोबाइल नंबर- 6388172360
