धरती का लाचार ईश्वर
धरती का लाचार ईश्वर
गीत नहीं गाऊंगा मैं आज चांदनी रातों के
न शेर पढूंगा बसन्ती जज्बातों के
आज सुनाऊंगा हालत धरती के भगवान की
व्यथा सुनो आज इस देश के किसान की
मिट्टी में पैदा हुआ , मिट्टी में बचपन गुजरा
इनका हर एक अरमान मिट्टी में ही बिखरा
फसल नहीं हुई , सूखा हुआ खलिहान है
बेबस है , बेसहारा है , वो देश का किसान है
सबका पेट भरने वाला खुद भूखा सोता है
इस देश का किसान हर पल हर क्षण रोता है
फसल तो बो देता पर अच्छी किस्मत के बीज बो नहीं पाता
आज देश मे अन्नदाता , पेट भरकर सो नहीं पाता
कड़ी मेहनत करते धरती के सीने को फाड़कर
थाली में अन्न पहुँचाते खुद की खुशियों को मारकर
जिनका पेट भरा होता वो नजरंदाज करते इनकी कुर्बानी को
देख नहीं पाते महलों में रहने वाले झोपड़ी वालों की हानि को
किसान का पूरा जीवन संघर्ष की एक किताब है
पूरा न हो पाता इनका कोई ख्वाब है
पर नहीं पढ़ सकेंगे इस किताब को मिट्टी की खुशबू को दुर्गंध बताने वाले
पेट भरने वाले की व्यथा को नहीं जान पाएंगे पेट भरकर खाना खाने वाले
चुनावों में वोट बटोरे जाते है इनके नाम पर
अधिकारी भी विपत्ति डालते किसान पर
पर कागज़ों में होता इनका भला , कागज़ों में कायदे
किसानों का पता नहीं, कागज़ों में तो है फायदे
बारिश में भीगता और धूप में झुलसता है
अन्न पहुंचाने के लिए यह ठंड में ठिठुरता है
जब हर मौसम का सामना निडर हो यह करता है
तब कही जाकर इस देश का पेट भरता है
पीने को पानी नहीं , खाने को अन्न नहीं है
इस देश में किसानी करने का किसी का मन नहीं है
छोटी नज़रों से देखने लगा ज़माना किसानी के काम को
इस देश में अब इज़्ज़त नहीं मिलती देश के किसान को
दब जाता है किसान कर्ज के बोझ के तले
दुआ करता हर पल जीवन का सूरज जल्दी से ढले
अंत में झूल जाते फाँसी के फंदे को गले से लगाकर
खुद भूखे मर जाते है लोगों की भूख मिटाकर
इस संघर्ष को जितना कहा जाए , उतना कम है
हर दम इनको घेरे रहता गम है
व्यथा लिखते लिखते कलम कांपती, कागज़ आंसू बरसाता
किसानों का करना सीखो आदर, चीख चीख कर कवि बताता।
