धरती और माँ
धरती और माँ
नन्हा सा वो बीज
धरती की छाती दरकाकर
बढ़ता है आगे
पौधा होने की डगर पर।
ज्यों ज्यों पाता है वो
अस्तित्व स्वयं का
हर बार धरा को
चीरना होता है।
और वो उठाता है मस्तक
अपनी सत्ता के अहम का
अपने कदमों से नोचता रहता है
वो मिट्टी
जिसने थामा है उसे।
और उसके होने के अहसास को भी
और धरती सब सहती है मुस्कुराकर
अपना टूटना, दरकना, चटकना
पर थामे रखती है उसके वज़ूद को।
कसकर अपने दामन में
उफ़, कैसा उलझा है ये
माँ होना....।
