दहेज़ की दास्तां
दहेज़ की दास्तां
हस्यपद तो है , मगर सत्य है
एक रिश्ता अब पैसों से बन रहा है,
कीमती इंसान नहीं अब
उसकी दौलत को आंका जा रहा है ,
धन और मन बेचकर
एक रिश्ता ख़रीदा जा रहा है ।
शादी है या व्यापार
कोई फ़र्क नजर नहीं आता ,
इंसानियत नहीं , नौकरियों के दम पर
बोलियां लग रही है ,
जिसने ख़ुद को नीलाम कर दिया
उसका काफ़ी नाम हो रहा है ।
ख़रीदा हुआ सामान
आखिर क्या उम्र भर टिकता है ,
मिला हुआ धन क्या
जीवन भर चलता है ,
फिर कैसे रिश्तों को ताउम्र निभाने का
वादा किया जा रहा है ।
गुनहगार सिर्फ वो नहीं&nb
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जो मांगकर ले रहे हैं ,
दोषी वो भी है जो
मांग पूरी कर रहे हैं ,
खिलौना समझकर
जिसकी बोली लग रही है
उसका हश्र होगा कैसा
क्या सोचा जा रहा है ।
ये जो लड़की की ख़ुशी का नाम देकर
खुद को कर्जदार बना रहे हैं ,
असल में उम्र भर का
उसको नासूर दे रहे है ,
यूं हीं दहेज़ से नहीं मरती
हर रोज़ लड़कियां ,
वास्तविकता छिपाकर
नहीं बनती जिदंगियां ।
वक्त है इसे अब जड़ से मिटाने का
वरना समाज कमजोर हो रहा है ,
हस्यपद तो है , मगर सत्य है
एक रिश्ता अब पैसों से बन रहा है ।