जिदंगी के दायरे
जिदंगी के दायरे
जिदंगी एक दायरे में
सिमट कर रह गई है ,
और दायरा भी ऐसा है
जिसकी लकीरें नज़र नहीं आती
सिर्फ़ महसूस की जाती हैं ।
झूठे वादों - दिलाशो की
एक मोटी दीवार ऐसी बनी है
जो अब गिर नहीं सकती ,
दिखावे की चाह में
नकाब हर चेहरे पर चढ़ा है
अब तो असलियत की पहचान
किसी हाल में हो नहीं सकती ।
ये दुनियां भ्रम सी लगती है
सपने , उम्मीदें सबकुछ
रस्सियों में जकड़े से लगते हैं ,
तोड़ने की हर कोशिश
नाकामयाबी की तरफ़ खींचती है
एक पारभासी परदा
आंखों के सामने पड़ा है
जिसके पार दूर - दूर तक
सिर्फ़ धुंधला ही नज़र आता है ।