दहेज बाज़ार
दहेज बाज़ार
कैसा बाज़ार है ये, बिकने वाला बिकता तो है,
पर बोली जो लगी उस पे, चुकाता भी उसे वो खुद है,
खरीददार भी कुछ कम नहीं यहाँ,
बोली की कीमत बताता भी खुद है,
न मिलने पर बताई रकम यहाँ,
नाराज़ हो, दुकान अपनी
दूसरे के द्वार ले जाता भी खुद है,
इंजीनियर, डॉक्टर, सरकारी मुलाज़िम...
बिका करते थे, कभी ऊंची कीमत पर यहाँ,
आज का दौर मगर कुछ और है,
शकल, सूरत, सीरत....कुछ भी हो चाहे,
आज तो हर दुल्हा, पैसे से तोला जाता है यहाँ,
छोड़ कर पिता का घर,
दूसरे के मकान को घर बनाती भी है यहाँ,
फिर भी, हर मोड़ पे उसको,
उसकी कीमत कम चुकाने का
अहसास दिलाया जाता भी है यहाँ,
देने वाले भी कुछ कम नहीं,
मना कर भी दे खरीददार जहाँ,
फिर भी, फर्ज समझ कर वो अपना,
कभी बेटी के नाम, कभी दिखाने को झूठी शान,
चाहे बेचना पड़े मकान,
भर ही देते हैं ऋण यहाँ...
इसीलिए शायद ये प्रथा गलत है,
न मिलने पर,
गाड़ी, बंगला और कैश,
समान को मंडप पे छोड़ जाते हैं यहाँ,
कीमत पर हाल में चुकाती है, औरत यहाँ,
कभी जल कर, कभी पिट कर,
कभी फांसी, तो कहीं कुएं में,
डुबाई जाती है यहाँ,
कहने को मॉडर्न हो चला है, ज़माना यहाँ,
फिर भी न जाने क्यों,
ख़बर हर रोज़ ये छपती है,
कभी जिंदा लाश तो कहीं राख बनाई जाती है, यहाँ....
कैसा बाज़ार है ये, बिकने वाला बिकता तो है,
पर बोली जो लगी उस पे, चुकाता भी उसे वो खुद है...
