डोर
डोर
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सब कुछ टूटा फूटा है
आसमान भी रूठा है
नित दिन नए सपने पिरोता है
ना जाने क्या पाता, ना जाने
क्या खोता है
उलझा उलझा हर इंसान है
पंछी पेड़ भी परेशान है
हवा में घुलता जाने कितना
विकार है
समय को हराने की रफ्तार है
कितना विकसित विज्ञान है
दो हाथों में ब्रह्माण्ड है
हर एक सोच में आविष्कार है
कारखानों में शोर है
कुछ नया करने की होड़ है
टूट गई सुबह शाम की डोर है
हर मन में रात घनघोर है
आसमान क्यूं रूठा है
ना जाने क्या पाता, ना जाने
क्यूँ संजोता है।