घर
घर
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घर पर ही तो थी मैं,
जब भी तुम बाहर जाया करते थे।
सजाती, संवारती हर कोने को निखारती,
जब दफ्तर में जूझ रहे थे तुम
एक घरौंदा बुन रही थी मैं।
अब जब तुम भी घर पर हो,
उन क्षण को साथ मैं कर लूं,
जब तुम नहीं थे वो पल कहीं ढूंढ रही थी मैं।
जो छूट गए थे रोज मर्रा की दौड़ में,
किसी नासमझ तर्क में, हम दोनों के अहम में,
कुछ बात तुम कर लो दो विचार मैं रख दूँ,
इन सूक्ष्म दीवारों में कुछ जान हम भर दें,
सोच मेरी हो या तुम्हारी हो दोनों में एक हामी भर लें,
आज इस घर में कुछ बीते हुए एहसास भर दें।
