एक बरस
एक बरस
इकतीस दिसंबर की शाम बीता साल मैं याद करने लगी
कुछ नया सा कुछ पुराना सा इस देश का
कुछ अपना सा इक ताना बाना बुनने लगी,
गुजरे बारह महीनों का हाल मैं बस यूं ही लिखने लगी।
नए साल का स्वागत करती जोशीली जनवरी की जकड़ती सर्दी,
फिसलती रजाई को समेटती फूलों की फुलवारी सी फ़रवरी,
गुनगुनी धूप में रंग बिखेरती, गुलाल सी महकती मार्च की होली,
जब झूम उठा खालियन लहराने लगी फसलें
बेहिसाब खुशियां लिए लो आ गई बैसाखी,
सूरज ने अब बदला रुख प्रचंड पारे से बेहाल कई
मई जून में आग उगलती धरती,
सावन की पहली फुहार को तरसती धरती
खिल उठी वो सूखी मिट्टी,
जब रिम झिम बरसे बादल और आसमान में कड़की बिजली,
रक्षा का वचन निभाया, दही हांडी की धूम मचाई,
जब हर गली इक कान्हा ने मधुर बांसुरी बजाई,
अगले बरस तुम जल्दी आना की पुकार लगाई
और अगस्त, सितंबर ने भी ली विदाई,
अक्टूबर ने दस्तक दी और त्योहारों की लड़ी सजाई,
हरसिंगार की खुशबू बदलती हवा की बाहार लायी,
बुराई पर सच की जीत की गूंज बजने लगी
हर घर में दीवाली की धूम मचने लगी,
सुनहरी धूप अब अच्छी लगने लगी
नए साल की तैयारी मैं फिर करने लगी,
कुछ उमंग भरा कुछ उमीद से भरा हो
आने वाले कल की अपेक्षा मैं फिर करने लगी।