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Deepti singh

Abstract

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Deepti singh

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राहगीर

राहगीर

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कौन कहां चला किस राह चला

कहीं रास्ते मिले कहीं आहतें मिली

मंजिलों की चाह में दूरियां बड़ी

आगे ही आगे बढ़ता गया।


हर दिशा में बढ़ता गया

जैसे समय की घड़ी

चार दोस्त बने, सफर अच्छा कटा

मन थम सा गया,

फिर कहीं कुछ और घटा।


फिर राह पकड़ी किसी ओर चला

इस बार शायद थोड़ी तेज चला

सरल सफर कुछ कठिन हुआ

जहां शाम का पांच अब

रात का दस बजा।


फिर लगा अब लौट चलूं

सुबह के बाद वाली दोपहर से मिलूं

मंजिलों तक नहीं रास्तों पर सही

जो छूट गया उस ओर चलूं

कल में नहीं अभी इस आज में रहूं।


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