खेल चरित्र
खेल चरित्र
इस नवीन दशक के खेल अनोखे होंगे,
मैदान खाली और दर्शक घर बैठे होंगे।
बेशुमार तालियों की गड़गड़ाहट कम होगी,
खेल प्रेमियों की आंखे अब कहां नम होंगी।
उत्साह में प्रोत्साहन भी क्षीण होगा।
लंबी कतारों में खड़ी भीड़ का आना वर्जित होगा,
खेल का मनोबल खिलाड़ी को ही बढ़ाना होगा।
जीत का जोश भरपूर होगा,
जीत का जश्न एकांत में मशगूल होगा
अब खेल के नियम नए होंगे
हार- जीत के एहसास वही पुराने होंगे।
एक हारे हुए खिलाड़ी को उठाना मुश्किल होगा
आँसू आए तो खुद ही सारे पोछने होंगे।
साथी का कंधा भी थोड़ा दूर होगा,
अब सांत्वना देने का अंदाज़ भी कुछ अलग होगा।
और जो जीता वो सिकंदर ही कहलाएगा
बस पीठ पर शायद अब कोई नहीं थपथपाएगा।
गिर कर संभालना खेल की एक रीत है,
उस चोट से घाव की समस्या गंभीर है।
आज जो भी है, कुछ विचित्र है,
नए खेल का विकसित चरित्र है।
समय बदला है, जीवन में प्रवाह जरूरी है,
जैसे प्रतिस्पर्धा में खेल की भावना जरूरी है।
दूर से सही गेंद में उछाल जरूरी है।
क़ायदा बदलेगा, रक्त में संचार जरूरी है।
किसी एक जीत के लिए देह से दूरी जरूरी है।
और नए दशक के इस नवीन खेल में
खिलाड़ी का किरदार जरूरी है।
