Rashmi Prabha

Tragedy

3  

Rashmi Prabha

Tragedy

दामिनी -अरुणा, कौन कौन !

दामिनी -अरुणा, कौन कौन !

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यह दामिनी है 

वह अरुणा थी 

तब भी एक शोर था 

आज भी शोर है ......... 

क्यूँ ? क्यूँ ? क्यूँ ?


शोर की ज़रूरत ही नहीं है 

नहीं है ज़रूरत कौन कब

कहाँ जैसे प्रश्नों की 

क्यूँ चेहरा ढका ?


कौन देगा जवाब ?

जवाब बन जाओ 

हुंकार बन जाओ 

हवा का झोंका बन जाओ 

उदाहरणों से धरती भरी है

उदहारण बन जाओ .....


पुरुषत्व है स्त्री की रक्षा 

जो नहीं कर सकता 

वह तो जग जाहिर नपुंसक है !


बहिष्कृत है हर वो शक्स 

जो शब्द शब्द की नोक लिए 

दर्द के सन्नाटे में ठहाके लगाता है 


उघरे बखिये की तरह

घटना का ज़िक्र करता है 

फिर एक पैबंद लगा देता है कि !


याद रखो -

यह माँ की हत्या है 

बेटी की हत्या है 

बहन की हत्या है 

पत्नी की हत्या है 


कुत्सित विकृत चेहरों को

श्मशान तक घसीटना सुकर्म है 

जिंदा जलाना न्यायिक अर्चना है 

दामिनी की आँखों के आगे राख हुए जिस्मों को 

जमीन पर बिखेरना मुक्ति है .......


इंतज़ार - बेवजह - किसका ?

और क्यूँ ?

ईश्वर ने हर बार मौका दिया है 

बन जाओ अग्नि 

कर दो भस्म 

उन तमाम विकृतियों को 

जिसके उत्तरदायी न होकर भी 

तुम होते हो उत्तरदायी !


ढके चेहरों को आगे बढ़कर खोल दो 

नोच डालो दरिन्दे का चेहरा 

या फिर एक संकल्प लो 

खुद का चेहरा भी नहीं देखोगे 

तब तक...


जब तक दरिन्दे झुलस ना जायें 

उससे पहले  

जब जब देखोगे अपना चेहरा 

अपनी ही सोच की अदालत में 

पाप के भागीदार बनोगे 

 

जीवित लाशों के ढेर से

दहशत नहीं होती तुम्हें ?

मुस्कुराते हुए 

अपनी बेटी को आशीर्वाद देते 

तुम्हारी रूह नहीं कांपती - कि 


कल किसके घर की दामिनी होगी 

किसके घर की अरुणा, शानबाग 

और इस ढेर में कोई पहचान

नहीं रह जाएगी !


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