Harminder Kaur

Abstract

4.5  

Harminder Kaur

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चलता है

चलता है

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जाने कहां से चली ये हवा " चलता है"

कुछ बने ना बने बस "चलता है"


पहले परख की आदत थी ज़माने में

अब जो होता है हो जाए सब " चलता है"


तहज़ीब और आंखों की शर्म ही काफी हुआ करती थी

अब तो घरों में ही बार का सिलसिला " चलता है"


भाईचारा, प्रेम और विश्वास थे समाज के अभिन्न अंग

अब चाशनी चढ़ी जालसाज़ी का संग "चलता है"


रूठना-मनाना होते थे खूबसूरत रंग रिश्तों में

अब इन रंगों में तोहमतें लगाना "चलता है"


कंगन, चूड़ी, बिंदी, लाली और झुमके थे हया के गहने

अब इनका हवस की भेंट चढ़ जाना "चलता है"


मर्यादा, स्वाभिमान, प्रतिष्ठा जान से भी अधिक प्यारे थे

अब नग्न नाच कूंचे- कूंचे कुचले जाना "चलता है"


मिट्टी की मूरत पूजी जाती थी अत्यंत श्रद्धा भाव से

आज सड़कों, कचरों और कदमों तले आ भी जाए तो " चलता है"


"हम" में असीम ताकत को भूल गए सब धीरे-धीरे 

अब तो हर तरफ बस "मैं" ही "चलता है" !


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