चीर हरण :व्यथा द्रौपदी की
चीर हरण :व्यथा द्रौपदी की
उठी हुंकार मन मे ऐसी विद्रोह की,
जैसे द्रोपती के चीरहरण की पुकार-सी,
हो द्रवित नैन लगीं आसुओ की धार की,
देख व्यथा लजा गई नारी के स्वाभिमान की।।
अपनो ने ही लगा दी दांव पर,
भारी सभा मे अस्मत की हार पर,
हो उठीं कुंठित व्याकुलता ललाट नारी की,
कौन रक्षा करेगा अब यो अबला नारी की ?
देख फिर से वह वही लजा गई,
अपनो के चेहरों में नक़ाबपोश कैसे है?
वसन के हरण में वह भीख मांगती गई,
जुए के खेल में वह भी तो हार-सी गई।।
फिर से मनुष्यता की सीमा लांघ दी,
तुच्छ मनु ने उसे कैसी सहायता दी?
ह्दयपीड़ा को समझे वही ईश्वर है,
मनुष्यों में कहो ऐसा कौन सा नर है!